- गन्ना और जलेबी होता है मीठा लेकिन मिठास में भिन्नता
- पयुर्षण पर्व के तीसरे दिन को कहते है आर्जव धर्म
- मुनिश्री समता सागर महाराज बरसा रहे अमृत वर्षा
मंडला महावीर न्यूज 29. पयुर्षण के तीसरा दिन को आर्जव धर्म कहा जाता है। मुनिश्री समता सागर महाराज ने बताया कि सर्प बाहर कितना ही लहराकर क्यों ना चलता रहे किन्तु जब भी वह बिल में प्रवेश करना चाहेगा उसे सीधा सरल होना ही पड़ेगा। इसी तरह हमारा जीवन संसार में कितना ही टेड़ा मेढ़ा क्यों न बना रहे, अपने आत्म-गृह में आने के लिये उसे एकदम सरल सीधा ऋजु होना ही पड़ेगा। इसी सरलता की परणति का नाम आर्जव धर्म है। ऋजुता का जो भाव है वह आर्जव है अर्थात् मन, वचन, काय की सरलता का नाम आर्जव धर्म है।
उन्होंने बताया कि गन्ना भी मीठा होता है और जलेबी भी मीठी होती है, पर दोनों की मिठास में भिन्नता है। गन्ने की मिठास अंदर से उपजी हुई मिठास है जिसका स्रोत जमीन है किन्तु जलेबी की मिठास ऊपर से डाली गई मिठास है, इसकी मिठास कृत्रिम है। आकृति बनावट से ही इस बात का बोध होता है लेकिन गन्ना सरल सीघा है इसलिये उसकी मिठास स्वाभाविक ही है किन्तु जलेबी का जीवन ही टेड़ा मेढ़ा है तब उसकी मिठास वास्तविक हो कैसे सकती है? कुटिलता की मिठास स्वाभाविक नहीं धोखे वाली मिठास है ।
मुनिश्री समता सागर महाराज ने कहां कि आज के इस धर्म को मन, वाणी और कर्म के द्वारा जीवन व्यवहार में आचरित करना चाहिये। मनसा वाचा कर्मणा एकरूपता ही इस धर्म की भाषा एवं भाव है। जैसे-जैसे मन का विकास होता है मन माया से आच्छादित होता जाता है और वही आच्छादित मन मारीच की माया का रूप लेता जाता है किन्तु हम सभी जानते हैं कि मारीच की माया ज्यादा देर टिकती नहीं है। मन का मारीच यदि किसी मायाजाल को बुनता है तो अंतत: उसे उसी में फसकर मकड़ी की तरह प्राण गंवाना पड़ता है। दूसरों को ठगकर, धोखा देकर हम भले ही थोड़ी देर के लिये आनंदित हो जायें और अपने आपको चतुर समझदार मानने लगे किन्तु यह भी याद रखें कि हम दूसरों को भले ही छलें लेकिन छाले तो अपनी ही आत्मा में पड़ेंगे। बालकं का व्यवहार एकदम निश्छल होता है किन्तु वही बालक जब पालक और चालक बन जाता है तो उसका मन चालाक मायावी हो जाता है। बालक के जीवन की तरह सरलता आना ही आज का धर्म है।