माँ के सपने को दादी के सहारे किया पूरा, बनाई अपनी पहचान
- आदिवासी बैगा सांस्कृति को संजोने कर रही प्रयास
- जिले से लेकर प्रदेश स्तर तक बनाई पहचान
मंडला महावीर न्यूज 29. जिले के वनांचल विकासखंड मवई निवासी 26 वर्षीय आदिवासी समाज की होनहार युवती भारती धुर्वे अपनी माँ का सपना पूरा करने बैगा आदिवासी की परंपराएं, रीति रिवाज और इसकी कलाओं को संजोकर रखने के लिए आदिवासी बैगा समाज के लोगों को जागरूक कर रही है। बैगा आदिवासी संस्कृति की पहचान कर्मा, रीना, शैला नृत्य को जीवंत रखने भारती धुर्वे पुरजोर प्रयास कर रही है। इस संस्कृति को सहजने अब युवा भी आगे आ रहे हैं। कुछ सालों में ही जिले की पहचान रखने वाले कर्मा, रीना, शैला नृत्य दूसरे प्रदेशों तक अपनी पहचान बना लिया है। मवई विकासखंड के ग्राम पंचायत परसाटोला में रहने वाली भारती धुर्वे इस परंपरा, संस्कृति को संरक्षित करने में प्रयासरत है।
जानकारी अनुसार अपनी माँ के अधूरे सपने को पूरा करने के लिए आदिवासी समाज की होनहार युवती भारती धुर्वे ने अपनी दादी माँ की मेहनत और उसकी आस को टूटने नहीं दिया। उसने न केवल अपनी पहचान बनाई, बल्कि अपने समुदाय की सांस्कृतिक विरासत को भी जिला और प्रदेश स्तर पर पहचान दिलाई। हम बात कर रहे हैं भारती धुर्वे की जिन्होंने अपनी स्वर्गीय माँ माहे बाई धुर्वे की इच्छा को साकार करते हुए बैगा आदिवासी संस्कृति को संजोने और उसे आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
भारती धुर्वे मवई ब्लॉक के एक छोटे से गांव की रहने वाली है। स्कूल समय से ही भारती को अपनी संस्कृति से लगाव रहा है। इसके लिए उसे उसकी माँ से प्रेरणा मिली। भारती की माँ स्व. माहे बाई धुर्वे की इच्छा थी कि उसकी बेटी बैगा आदिवासी की परंपराएं, रीति रिवाज और इसकी कलाओं को जीवंत रखने में सहयोग करें, लेकिन भारती की माँ का सपना उसकी बेटी ने पूरा तो किया लेकिन इसे देखने के लिए वह करीब 21 वर्ष पहले ही इस दुनिया से विदा ले चुकी थी। भारती धुर्वे जब पांच वर्ष की थी, तब ही उसकी माँ का देहांत हो चुका था। जिसके बाद उसकी दादी मनमत बाई धुर्वे ने भारती और उसके छोटे भाई की जिम्मेदारी ली और उनका पालन, पोषण किया। अब दोनों बच्चों की जिम्मेदारी मनमत बाई के कंधों पर आ गई थी। दोनों बच्चों को स्वयं खेती, किसानी और मजदूरी करके पढ़ाया और भाई बहन को पैरों पर खड़ा किया। भारती ने बताया कि उनके पिता हवल सिंह धुर्वे खेती कार्य करते है, जिनका साथ उसका छोटा भाई भी देता है।
माँ के सपने को पूरा करने पीछे नहीं हटी भारती
दादी मनमत बाई ने बताया कि भारती धुर्वे पोस्ट ग्रेजुएशन की शिक्षा प्राप्त की है और वर्तमान में एक उद्योगनीय संस्था में कार्यरत हैं। पढ़ाई के साथ भारती के इस सफर में उनकी दादी माँ का महत्वपूर्ण योगदान रहा। दादी माँ ने कठिन परिस्थितियों में मजदूरी करके भारती को पढ़ाया-लिखाया और उसे इस मुकाम तक पहुंचाया। अपनी माँ के सपने को साकार करने के लिए भारती ने बैगा संस्कृति के विभिन्न पहलुओं का गहन अध्ययन किया। भारती की माँ की इच्छा थी कि उसकी बेटी बैगा आदिवासी की परंपराएं, रीति रिवाज और इसकी कलाओं को जीवंत रखने में सहयोग करें। जिसके भारती ने बखूबी पूरा किया लेकिन भारती की माँ का सपना उसकी बेटी ने पूरा तो किया लेकिन इसे देखने के लिए वह करीब 21 वर्ष पहले ही इस दुनिया से विदा ले चुकी थी। भारती ने विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों और मंचों के माध्यम से बैगा संस्कृति की जीवंत प्रस्तुति दी, जिससे इस अनमोल धरोहर को व्यापक पहचान मिली।
पंरपराओं को संरक्षित रखने युवाओं की जिम्मेदारी
भारती ने बताया कि मंजिल तक पहुंचने के लिए रास्ता आसान नहीं थी, उस रास्ते पर कई अड़चने, रूकावटें थी, माँ का सपना भी पूरा करना था और अपने समाज के लिए कुछ कर दिखाना था। इसी चाह को राह बनाकर वह आगे बढ़ते गई और अपनी मंजिल और अपनी मां का सपना पूरा कर दिया। भारती धुर्वे अब किसी पहचान की मोहताज नहीं है। जिले समेत प्रदेश स्तर में भी इसे जाना पहचाना जाता है। भारती ने बताया कि कुछ वर्ष पूर्व एक कार्यक्रम में बस्तर जिला जाना हुआ, जहां लोक नृत्य और रोजमर्रा की जरूरी चीजों में प्रकृतिक चीजों का उपयोग जैसे डिस्पोजल की जगह दोना, बॉटल की जगह सुराही आदि से काफी पे्ररित हुईं। इसके बाद स्कूल समय से ही कर्मा, रीना, दादरिया, शैला आदि नृत्य व गीतों को संरक्षित करने का प्रयास शुरू कर दिया था। भारती का कहना है कि आदिवासी संस्कृति में लोक नृत्य प्रमुख है। जिसे सरंक्षित रखना युवाओं की जिम्मेदारी है। जिससे के लिए भारती समय-समय पर दूसरे बच्चों को भी नृत्य व लोक गीत सिखाती हैं। मवई ब्लॉक में लगभग 40-50 लोगों का एक दल बना हुआ है जो आदिवासी लोक नृत्य की प्रस्तुति देने देश के विभिन्न क्षेत्रों में भी जाते है।
आदिवासी समाज प्राकृतिक के पूजक
आदिवासी बाहुल्य जिला मंडला अपने आप में एक एतिहासिक धरोहर से कम नहीं है। यहां प्राकृतिक छटां की सुंदरता के साथ प्राचीन कालीन सभ्यता की विरासत भी दिखने मिलती है। यहां राष्ट्रीय मानव का दर्जा प्राप्त बैगा आदिवासी जाति भी निवास करती है। जिले के अनेक क्षेत्रों में बैगा आदिवासी अपना जीवन बसर कर रहे है। छोटा कश्मीर कहे जाने वाला विकासखंड मवई मूलत: बैगा आदिवासी समाज से सुसज्जित है। मवई के प्रत्येक ग्राम में आदिवासी निवास करते है, यहां ये प्राकृतिक के पूजक है। यहां के बैगा आदिवासी समाज का पहनावा और इनके रीति रिवाज पुराने समय से चली आ रही है।
आदिवासी समाज का रहन, सहन, पहनावा
भारती धुर्वे ने बताया कि बैगा आदिवासी समाज की महिलाएं घुटने से ऊपर लपेटकर लुगरा पहनती हैं, घांस से बने हुए गहने पहनती है और वहीं पुरुष धोती कुर्ता फेटा और सिर पर कल्घीं पहनते हैं। समय-समय पर विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम किए जाते हैं। जिसमें रीना, सैला, करमा, ददरिया मांदर टिमकी की झंकार से किया जाता है। महिलाएं मिलकर अपनी समूह में रीना गाती है और पुरुष दूसरी और शैला नाचते हैं। बीच-बीच में पुरुष और महिला दोनों एक साथ नाचने लगते हैं। बैगा आदिवासी खाने में कोदो कुटकी का चावल और पेज का ज्यादा उपयोग करते है। इसके साथ चेंच की भाजी चकोडा़ की भाजी व जंगल में उपलब्ध सरुता की भाजी समेत अन्य भी है जो बहुत ही पौष्टिक और शुद्ध होती है। बता दे कि इन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में मक्के के पान रोटी नहीं बनाई जाती है। गांवों में लोगों का सांस्कृतिक कार्यक्रमों को एक साथ मिलकर करने से भाईचारा की भावना बढ़ती है।
परंपराओं को सहजने की जरूरत
बढ़ती जनसंख्या के कारण आज हमारे देश की कई परंपराए, सांस्कृति और रीति रिवाज विलुप्त होते जा रही है। पुरानी सभ्यता, परंपराए, रीति रिवाज को आज की पीढ़ी भूलते जा रही है, गांव से शहर की तरफ पलायन होने लगा है। ऐसे में प्राचीनकालीन रीति रिवाज आने वाली पीढ़ी के लिए इतिहास बनकर रह जाएगी। इस आदिवासी संस्कृति और रीति रिवाजों को सहजने बहुत जरूरी है। जिसके लिए जिले के युवा वर्ग और कुछ सामाजिक संगठन भी काम कर रहे है।
पारंपरिक सभ्यता को बचाने प्रयास
भारती धुर्वे का कहना है कि आज आदिवासी रीति रिवाज विलुप्त होते जा रही है, हमें अपनी पारंपरिक सभ्यता व रीति-रिवाजों को बनाए रखने के लिए हमें अपने ग्रामों में लोगों से मिलकर चर्चा करनी चाहिए। इस सभ्यता को संजोकर रखने के लिए समय-समय पर रीना, सैला, ददरिया जैसे पुरानी कलाओं के कार्यक्रम आयोजित करना चाहिए। बैगा आदिवासी के परंपरिक पहनावा को भी निरंतर बनाए रखने के लिए हमें अपनी वेशभूषा में रहना चाहिए। रीना सैला में बड़े बुजुर्ग से लेकर अन्य छोटे बच्चों तक के लोगों को शामिल करना चाहिए। जिससे छोटे बच्चे अपनी संस्कृति व रीति-रिवाजों को जाने और आगे तक अपनी रीति-रिवाजों को पारंपरिक रूप से बनाए रखे।