कांव-कांव की आवाज अब नहीं देती सुनाई

  • कांव-कांव की आवाज अब सुनाई नहीं देती
  • शहरी क्षेत्र में कम हो गई कौवा की संख्या, पितृपक्ष में नहीं दिखे

मंडला महावीर न्यूज 29. पौराणिक मान्यता है कि श्राद्ध पक्ष में कौवे दिवंगत परिजनों के हिस्से का खाना खाते हैं, तो पितरों को शांति मिलती है और उनकी तृप्ति होती है। लेकिन पितृ दूत कहलाने वाले कौवे आज नजर नहीं आते। बढ़ते शहरीकरण, पेड़ों की कटाई और ऊंची इमारतों के कारण प्रकृति का जो ह्रास हुआ है, उसने कौवों की संख्या को कम कर दिया है।

बताया गया कि कौवा ऐसा पक्षी है जो ऊंची इमारतों और सघन हरियाली वाले क्षेत्रों में रहना पसंद करता है। यह पक्षी सर्वाहारी होने के साथ घोंसलों में रहता है, लेकिन वर्तमान में शहर में इन तामाम सुविधाओं का एक साथ नहीं मिल पाना ही इनकी कमी का प्रमुख कारण है। हालांकि, कुछ लोग आज भी छतों पर दाने डालकर पक्षियों को भोजन मुहैया कराते हैं पर यह देखने के लिए बहुत कम ही मिलता है।

बुजूर्गो का कहना है कि एक समय था जब शहर और गांव हर जगह कौवों का झुंड दिखाई देता था। चिडिय़ा और कौवे घर की छत और आंगन में सूख रहा अनाज खाते थे। लोग पक्षियों को दाना डालते थे। सुबह घर की छत पर कौवा कांव-कांव करता था तो कहते थे कि कोई मेहमान आने वाला है, लेकिन अब यह कांव-कांव की आवाज शायद ही सुनाई देती हो। इनकी आवाज को ऊंचे पक्के मकानों और बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों में दब गई है। पक्षियों की भूख-प्यास कहीं दूर उड़ गई। वहीं शहर, गांवों में बिजली के तारों का जंजाल और शहरों में घने पेड़-पौधों की कमी से कौवे पितृ पक्ष के दौरान भी नहीं दिखाई देते है। ग्रामीण बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में कम शोरगुल, अनाज की उपलब्धता और पेड़ों के चलते अभी भी कौवे दिखाई दे देते है।

पितृ दूत होने का महत्व 

शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि कौवा एक मात्र ऐसा पक्षी है जो पितृ-दूत कहलाता है। यदि दिवंगत परिजनों के लिए बनाए गए भोजन को यह पक्षी चख ले, तो पितृ तृप्त हो जाते हैं। कौवा सूरज निकलते ही घर की मुंडेर पर बैठकर यदि वह कांव- कांव की आवाज निकाल दे, तो घर शुद्ध हो जाता है। श्राद्ध के दिनों में इस पक्षी का महत्व बढ़ जाता है। यदि श्राद्ध के सोलह दिनों में यह घर की छत का मेहमान बन जाए, तो इसे पितरों का प्रतीक और दिवंगत अतिथि स्वरुप माना गया है।


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